Rajnagar: मैं राजनगर बोल रहा हूं… वैभव, विरासत और विस्मृति की कथा

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Rajnagar: मैं राजनगर बोल रहा हूं, इतिहास को समेटे आज भी बदहाली की मार झेल रहा हूं, हां मैं राजनगर बोल रहा हूं… मैं वही राजनगर हूं, जिसकी मिट्टी में कभी रियासतों का रौब था, जिसकी फिज़ा में स्थापत्य का संगीत बहता था और जिसकी दीवारें सत्ता, संस्कृति और साधना की कहानियां फुसफुसाया करती थीं। आज जब कोई मुझे देखता है तो कह देता है- खंडहरों का शहर। पर कोई यह नहीं पूछता कि इन खंडहरों में कितने सपने, कितनी योजनाएं और कितनी विरासत दबी पड़ी है।

नेपाल की सीमा से सटे मिथिला अंचल में बसा मैं कभी दरभंगा रियासत का स्वप्नलोक था। महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह ने मुझे केवल बसाया नहीं, गढ़ा था। सलीके से, सोच-समझकर, दूरदृष्टि के साथ। कहते हैं उन्होंने मुझे राजधानी बनाने का सपना देखा था। लोग डराते थे, सीमा पास है, खतरे हैं। पर राजा साहब ने जवाब में तर्क नहीं, ईंट-पत्थर खड़े कर दिए। 250 से अधिक कमरों वाला रमेश्वर विलास पैलेस, भव्य महल, अलौकिक मंदिर और प्रशासन के लिए विशाल सचिवालय- आज जहां विशेश्वर सिंह जनता महाविद्यालय चल रहा है- सब उसी स्वप्न के साक्ष्य हैं।

Rajnagar: नौलखा महल

मेरे आंगन में नौलखा महल खड़ा है, हाथी महल की चौखट आज भी शाही कदमों की आहट ढूंढती है। रानी महल और मोती महल अपने टूटे-फूटे आईनों में अतीत की छवि तलाशते हैं। काली मंदिर, दुर्गा मंदिर, कामाख्या मंदिर, गिरजा मंदिर और रामेश्वरनाथ मंदिर- सभी दक्षिणामुखी-तंत्र, मंत्र, अध्यात्म और वैदिक कला का अद्भुत संगम हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई नक्काशी इटालियन और पुर्तगाली स्थापत्य की याद दिलाती है। हर आकृति, हर बेल-बूटे में एक कहानी छुपी है- मिथिला की संस्कृति की, दरभंगा राजघराने की, और उस समय के सौंदर्यबोध की।

मैं केवल धार्मिक या शाही परिसर नहीं था, मैं आधुनिकता का प्रयोगशाला भी था। 1898 में मुझे शहर बनाने का आदेश पारित हुआ। 1905 तक मैं नगर का रूप लेने लगा। चौड़ी सड़कें, चमकती इमारतें, सुव्यवस्थित बसावट- बिहार की पहली टाउनशिप कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 1926 में बना शारदा मंदिर देख लोग कहते थे-यह तो विदेश जैसा है।

Rajnagar: किसने किया था तैयार

मेरे वास्तुकार ऐरे-गैरे नहीं थे। जैसे दिल्ली को लुटियन ने गढ़ा, वैसे ही मुझे डॉ. एम. ए. कोरनी ने संवारा। वे केवल वास्तुकार नहीं, शिल्प के साधक थे। कहा जाता है कि उन्होंने इमारतें खड़ी करने की ऐसी तकनीक खोजी कि दीवारें हाथी के धक्के से भी न हिलें। सीमेंट का प्रयोग- दावा है कि सबसे पहले यहीं हुआ, उनकी पहचान बना। कोरनी तिरहुत सरकार के कर्जदार थे, और कर्ज चुकाने के बदले उन्होंने अपना हुनर मेरे शरीर पर ऐसे उकेरा कि मैं वास्तुविदों का आदर्श बन गया।

आज भी विशेषज्ञ मेरे शिल्प पर बात करते हैं। आईआईटी खड़गपुर से वास्तुकला में पीएचडी कर चुके डॉ. मयंक झा कहते हैं कि मेरी नव-शास्त्रीय वास्तुकला बंगाल की औपनिवेशिक शैली से प्रभावित है, जिसमें चाला शैली की प्रेरणा भी दिखती है। यानी मैं केवल अतीत नहीं, स्थापत्य इतिहास का पाठ्यपुस्तक हूं।

Rajnagar: साधन के लिए मशहूर

मेरे मंदिरों में केवल पूजा नहीं, साधना भी होती थी। तंत्र साधना में काली का अंतिम रूप- शिव की छाती से उतरकर कमल पर मुस्कुराती काली-दुनिया में केवल यहीं स्थापित है। कहा जाता है कि महान तांत्रिक महाराजा रामेश्वर सिंह ने अपनी साधना की पूर्णाहुति के बाद इस रूप को यहां प्रतिष्ठित किया। अमावस्या की रात, जब चांद नहीं होता, तब मां काली का यह मंदिर संगमरमर की तरह चमक उठता है—कई कहते हैं, ताजमहल से भी ज्यादा हसीन।

पर आज… आज मेरी दीवारें दरक रही हैं। बारिश में दो-दो इंच खिसकती जर्जर ईंटें मेरी पीड़ा को और गहरा कर देती हैं। कुछ महल खंडहर बन चुके हैं, कुछ ध्वस्त हो गए, और कुछ ध्वस्त होने की कगार पर हैं। नक्काशी आज भी सुंदर है, पर संरक्षण के अभाव में समय उसे निगल रहा है। मैं हर साल नए साल के पहले दिन हजारों लोगों को अपने आंगन में बुलाता हूं—पिकनिक मनाने, यादें बनाने। पर क्या यही मेरी नियति रह जाएगी?

फिर भी, मैं पूरी तरह हारा नहीं हूं। मेरी गलियों में कैमरे घूम चुके हैं। मैथिली की पहली फिल्म ममता गाबै गीत (1963) की शूटिंग मेरे यहां हुई। राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मिथिला मखान ने भी मुझे पर्दे पर उतारा। कई फिल्मों और वृत्तचित्रों ने मेरे सौंदर्य को कैद किया है। मैं आज भी कलाकारों को आकर्षित करता हूं।

Rajnagar: पर्यटकों का अड्डा

कहते हैं, अगर मुझे पर्यटन क्षेत्र का दर्जा देकर संवारा जाए, तो विदेशी मुद्रा आएगी, रोजगार पैदा होगा, और मधुबनी का चतुर्दिक विकास होगा। मैं मानता हूं- मेरे महल, मंदिर और इमारतें केवल पत्थर नहीं, अवसर हैं। अवसर इतिहास को बचाने का, लोगों को काम देने का, और मिथिला को उसकी पहचान लौटाने का।

शायर भवेश नाथ ने लिखा था, “दर्द इस शहर को भी होता है क्या बता, मुझे ये शहर तड़पता क्यों लग रहा है…” यह पंक्तियां लॉस एंजेलिस या तिब्बत की नहीं, मेरी हैं। मैं तड़पता हूं। इसलिए नहीं कि मैं पुराना हूं, बल्कि इसलिए कि मुझे भुला दिया गया है।

मैं राजनगर हूं, कभी शिल्पकारों की प्रेमिका, कभी रियासत का सपना, और आज बदहाली से जूझता इतिहास। अगर अब भी संभाला गया, तो मैं फिर मुस्कुरा सकता हूं। नहीं तो… मैं भी किताबों के पन्नों में सिमट जाऊंगा। पर याद रखना- खंडहर भी बोलते हैं। और आज, मैं बोल रहा हूं।

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